


भारत भूमि ने समय-समय पर ऐसे महामानवों को जन्म दिया है जिनका जीवन केवल उनके युग तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक बनता है। ऐसे ही एक महान विभूति थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन—दार्शनिक, शिक्षक, चिंतक और भारत के दूसरे राष्ट्रपति। उनके व्यक्तित्व में ज्ञान, अध्यात्म और राष्ट्रभक्ति का अद्भुत संगम दिखाई देता है। यही कारण है कि उनकी जयंती 5 सितम्बर को देश “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाता है।
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुत्तनी में हुआ था। अत्यंत सामान्य परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने विद्या और संस्कारों को अपना सबसे बड़ा बल बनाया। दर्शनशास्त्र में उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें न केवल एक अद्वितीय शिक्षक बनाया बल्कि विश्वपटल पर भारतीय विचारधारा का प्रखर प्रवक्ता भी। वे मानते थे कि शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि आत्मा को जागृत करने और समाज को सही दिशा देने का माध्यम है।
उनका अध्यापन शैली इतनी प्रेरणादायी थी कि छात्र उन्हें केवल शिक्षक ही नहीं बल्कि जीवन-मार्गदर्शक मानते थे। उनके विचारों में भारतीय संस्कृति की जड़ें गहराई से जुड़ी थीं, परंतु दृष्टि अत्यंत आधुनिक और वैश्विक थी। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से लेकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तक, हर जगह उन्होंने भारतीय दर्शन की गूंज सुनाई।
राजनीति में आने के बाद भी उनका मूल स्वभाव एक शिक्षक और दार्शनिक का ही रहा। स्वतंत्र भारत के उपराष्ट्रपति और फिर राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने लोकतंत्र को संस्कार और नैतिकता की आधारशिला पर खड़ा करने का प्रयास किया। उनका यह वाक्य—“शिक्षक ही समाज की वास्तविक रीढ़ हैं”—आज भी शिक्षा-जगत की दिशा निर्धारित करता है।
आज जब शिक्षा का उद्देश्य अक्सर केवल डिग्री और नौकरी तक सीमित हो जाता है, तब डॉ. राधाकृष्णन का जीवन हमें याद दिलाता है कि असली शिक्षा वह है जो मनुष्य को विवेकवान, करुणामय और उत्तरदायी नागरिक बनाए। शिक्षक दिवस उनके प्रति श्रद्धांजलि मात्र नहीं, बल्कि उनके विचारों को आत्मसात करने का संकल्प होना चाहिए।